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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--

आधी रात में--
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अंत में बहुत दिन तक स्थिति में कोई अंतर होते न देखकर डॉक्टर ने भी कह दिया, मैं भी समझ गया और मेरी पत्नी भी समझ गई कि उनका रोग अच्छा होने वाला नहीं है। उनको सदा रुग्ण रहकर ही जीवन काटना पड़ेगा।

तब एक दिन मेरी पत्नी ने मुझसे कहा, ‘‘जब न तो व्याधि ही दूर होती है और न मरने की ही कोई आशा है तब और कितने दिन इस जीवन्मृत को लिए काटोगे? तुम दूसरा विवाह करो।’’
यह मानो केवल एक युक्तिपूर्ण और समझदारी की बात थी–इसमें कोई भारी महत्त्व, वीरत्व या कुछ असामान्य था, ऐसा लेश-मात्र भी उनका भाव नहीं था।

अब मेरे हँसने की बारी थी। किंतु मुझमें क्या उस प्रकार हँसने की क्षमता है! मैं उपन्यास के प्रधान नायक के समान गंभीर और सगर्व भाव से कहने लगा, ‘‘जितने दिन इस शरीर में प्राण है...’’
वे टोककर बोलीं, ‘‘‘बस-बस, और अधिक मत बोलो! तुम्हारी बात सुनकर तो मैं दंग रग जाती हूँ।’’
पराजय स्वीकार न करते हुए मैं बोला, ‘‘इस जीवन में और किसी से प्रेम नहीं कर सकूँगा।’’
सुनकर मेरी पत्नी जोर से हँस पड़ीं। तब मुझे परास्त होना पड़ा।

मैं नहीं जानता कि उस समय कभी अपने आपसे भी स्पष्ट स्वीकार किया था या नहीं, किंतु इस समय मैं समझ रहा हूँ कि उस आरोग्य-आशाहीन सेवा-कार्य से मैं मन ही थक गया था। उस काम में चूक करूँगा, ऐसी कल्पना भी मेरे मन में नहीं थी; अतएव, चिर जीवन इस चिररुग्ण को लेकर बिताना होगा, यह कल्पना भी मुझे पीड़ाजनक प्रतीत हुई। यौवन की प्रथम बेला में जब सामने देखा था तब प्रेम की कुहक में, सुख के आश्वासन में, सौंदर्य की मरीचिका में मुझे अपना समस्त भावी जीवन खिलता हुआ दिखाई दिया था, अब आज से लेकर अंत तक केवल आशाहीन सुदीर्घ प्यासी मरुभूमि।

मेरी सेवा में वह आंतरिक थकान उन्होंने अवश्य ही देख ली थी उस समय मैं नहीं जानता था, किंतु अब जरा भी संदेह नहीं है कि वे मुझे संयुक्ताक्षरहीन ‘शिशु शिक्षा’ के प्रथम भाग के समान बहुत ही आसानी से समझ लेती थीं। इसीलिए जब उपन्यास का नायक बनकर मैं गंभीर मुद्रा में उनके पास कवित्व प्रदर्शित करने जाता तो वे बड़े अकृत्रिम स्नेह, किंतु अनिवार्य कौतूक के साथ हँस उठतीं। मेरे अपने अगोचर अंतर की सब बातों को भी वे अंतर्यामी के समान जानती थीं, इस बात को सोचकर आज भी लज्जा से मर जाने की इच्छा होती है।

डॉक्टर हारान हमारे स्वजातीय थे। उनके घर प्रायः मेरा निमंत्रण रहता। कुछ दिनों के आने-जाने के बाद डॉक्टर ने अपनी कन्या के साथ मेरा परिचय करा दिया। कन्या अविवाहित थी, उसकी उम्र पंद्रह की रही होगी। डॉक्टर ने कहा कि उनको मन के अनुकूल पात्र नहीं मिला, इसलिए उन्होंने उसका विवाह नहीं किया। किंतु बाहर के लोगों से अफवाह सुनता–कन्या के कुल में दोष था।

किंतु, और कोई दोष नहीं था। जैसी सुंदर थी वैसी ही सुशिक्षिता। इस कारण कभी-कभी एकाध दिन उनके साथ नाना विषयों पर आलोचना करते-करते घर लौटते मुझे रात हो जाती, पत्नी की औषधि देने का समय निकल जाता। वे जानती थीं कि मैं डॉक्टर के घर गया हूँ; किंतु उन्होंने एक भी दिन विलंब के कारण के विषय में प्रश्न तक नहीं किया।
मरुभूमि में फिर एक बार मरीचिका दिखाई देने लगी। तृष्णा जब गले तक आ गई थी तभी आँखों के सामने लबालब स्वच्छ जल कलकल, छलछल करने लगा! इस स्थिति में मन को प्राणपण से रोकने पर भी मोड़ नहीं सका।
रोगी का कमरा मुझे पहले से दुगना निरानंद लगने लगा। तब सेवा करने और औषधि खिलाने का नियम सब प्रायः भंग होने लगा।

डॉक्टर हारान बीच-बीच में मुझसे प्रायः कहते रहते, जिनका रोग अच्छा होने की कोई संभावना नहीं है उनका मरना ही भला है, क्योंकि जीवित रहने से उनको स्वयं भी सुख नहीं मिलता, और दूसरों को भी दुख होता है।’’ साधारण रूप से ऐसी बात कहने में कोई दोष नहीं तथापि मेरी स्त्री को लक्ष्य करके इस प्रकार के प्रसंग का उठाना उनके लिए उचित न था। किंतु, मनुष्य के जीवन-मरण के विषय में डॉक्टरों के मन ऐसे अनुभूतिशून्य होते हैं कि वे ठीक प्रकार से हमारे मन की हालत नहीं समझ सकते।
सहसा एक दिन बगल के कमरे से सुना, मेरी पत्नी हारान बाबू से कह रही थीं, ‘‘डॉक्टर, फिजूल में इतनी औषधियाँ खिला-खिलाकर औषधालय का कर्ज क्यों बढ़ा रहे हो? जब मेरी जान ही एक लाइलाज बीमारी है तब कोई ऐसी दवा दो कि यह जान ही निकल जाए और जान छूटे।’’
डॉक्टर ने कहा, ‘‘छिः! ऐसी बातें न करें।’’

यह सुनकर मेरे हृदय को एकबारगी बड़ा आघात पहुँचा। डॉक्टर के चले जाने पर मैं अपनी स्त्री के कमरे में जाकर उनकी चारपाई के सिरहाने बैठ गया, उनके माथे पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगा। वे बोलीं, ‘‘यह कमरा बड़ा गरम है, तुम बाहर जाओ। टहलने जाने का समय हो गया है। थोड़ा टहले बिना रात को तुम्हें भूख नहीं लगेगी।’’

टहलने जाने का अर्थ था, डॉक्टर के घर जाना। मैंने उनको समझाया था कि भूख लगने के लिए थोड़ा टहल लेना विशेष आवश्यक है। आज मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ, वे प्रतिदिन की मेरी इस छलना को समझती थीं। मैं ही निर्बोध था जो सोचता था कि ये निर्बोध हैं।

यह कहकर दक्षिणाचरण बाबू हथेली पर सिर टिकाए बहुत देर तक मौन बैठे रहे। अंत में बोले, ‘‘मुझे एक गिलास पानी ला दो!’’ पानी पीकर कहने लगे–एक दिन डॉक्टर बाबू की पुत्री मनोरमा ने मेरी पत्नी को देखने के लिए आने की इच्छा प्रकट की। पता नहीं क्यों, उनका यह प्रस्ताव मुझे अच्छा नहीं लगा। किंतु प्रतिवाद करने का कोई कारण नहीं था। वे एक दिन संध्या को मेरे घर आ उपस्थित हुईं।

उस दिन मेरी पत्नी की पीड़ा अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ बढ़ गई थी। जिस दिन उनका कष्ट बढ़ता उस दिन वे अत्यंत स्थिर और चुपचाप रहतीं; केवल बीच-बीच में मुट्ठियाँ बँध जातीं और मुँह नीला हो जाता, इसी से उनकी पीड़ा का अनुमान होता। कमरे में कोई आहट नहीं थी, मैं बिस्तर के किनारे चुपचाप बैठा था। उस दिन टहलने जाने का मुझसे अनुरोध करें, इतनी सामर्थ्य उनमें नहीं थी या हो सकता है, मन ही मन उनकी यह इच्छा रही हो कि अत्यधिक कष्ट के समय मैं उनके पास रहूँ। चौंध न लगे, इससे केरोसिन की बत्ती दरवाजे के पास थी। कमरा अँधेरा और निस्तब्ध था। केवल कभी-कभी पीड़ा के समय कुछ शांत होने पर मेरी पत्नी का दीर्घ निःश्वास सुनाई पड़ता था।

इस समय मनोरमा कमरे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई। उलटी ओर से बत्ती का प्रकाश आकर मुख पर पड़ा। प्रकाश से चौंधिया जाने के मारे कमरे में कुछ भी न देख पाने के कारण वे कुछ क्षणों तक दरवाजे के पास खड़ी इधर-उधर करने लगीं।

मेरी स्त्री ने चौंककर मेरा हाथ पकड़कर पूछा, ‘‘वह कौन है?’’ अपनी उस दुर्बल अवस्था में सहसा अपरिचित व्यक्ति को देखकर उन्होंने डरकर मुझसे दो-तीन बार अस्पष्ट स्वर में प्रश्न किया, ‘‘कौन है? वह कौन है जी?’’

न जाने मेरी कैसी दुर्बुद्धि हुई कि मैंने पहले ही कह दिया, ‘‘मैं नहीं जानता।’’ कहते ही मानो किसी ने मुझे चाबुक मारा। दूसरे क्षण मैं बोला, ‘‘ओह, अपने डॉक्टर बाबू की लड़की!’’

पत्नी ने एक बार मेरे मुख की ओर देखा, मैं उनके मुख की ओर नहीं देख सका। दूसरे ही क्षण उन्होंने क्षीण स्वर में अभ्यागत से कहा, ‘‘आप आइए!’’ मुझसे बोलीं, ‘‘उजाला करो।’’

मनोरमा कमरे में आकर बैठ गईं। उनके साथ मरीज की थोड़ी-बहुत बातचीत चलने लगी। इसी समय डॉक्टर बाबू आ उपस्थित हुए।

वे अपने औषधालय से दो शीशी औषधि साथ ले आए थे। उन शीशियों को बाहर निकालते हुए वे मेरी पत्नी से बोले, ‘‘यह नीली शीशी मालिश करने के लिए और यह खाने के लिए। देखिए, दोनों को मिलाइएगा नहीं, यह औषधि भयंकर विष है।’’

मुझे भी एक बार सावधान करते हुए दोनों दवाइयों को चारपाई के पास मेज पर रख दिया। विदा लेते समय डॉक्टर ने अपनी पुत्री को बुलाया।
मनोरमा ने कहा, ‘‘पिताजी, मैं यहाँ रह जाऊँ? साथ में कोई महिला नहीं है, उनकी सेवा कौन करेगा?’’
मेरी स्त्री व्याकुल हो उठीं। बोलीं, ‘‘नहीं-नहीं, आप कष्ट न कीजिए! पुरानी नौकरानी है, वह माँ की भाँति मेरी सेवा करती है।’’

डॉक्टर हँसते हुए बोले, ‘‘ये लक्ष्मीस्वरूपा हैं! चिरकाल से दूसरे की सेवा करती आ रही हैं, दूसरे की सेवा सहन नहीं कर सकतीं।’’

पुत्री को लेकर जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उसी समय मेरी स्त्री बोली, ‘‘डॉक्टर बाबू, ये इस बंद कमरे में बहुत समय से बैठे हैं, इनको थोड़ी देर बाहर घुमा ला सकते हैं?’’
डॉक्टर बाबू ने मुझसे कहा, ‘‘चलिए न, आपको नदी के किनारे थोड़ा घुमा लाएँ।’’
मैं तनिक आपत्ति प्रकट करने के बाद शीघ्र ही राजी हो गया। डॉक्टर बाबू ने चलते समय दवाइयों की दोनों शीशियों के संबंध में फिर मेरी पत्नी को सावधान कर दिया।

उस दिन मैंने डॉक्टर के घर ही भोजन किया। लौटने में रात हो गई। आकर देखा, मेरी स्त्री छटपटा रही थीं। मैंने पश्चात्ताप से पीड़ित होकर पूछा, ‘‘क्या तुम्हारी तकलीफ बढ़ गई है?’’
वे उत्तर न दे सकीं। चुपचाप मेरे मुख की ओर देखने लगीं। उस समय उनका गला रुँध गया था।
मैं तुरंत रात में ही डॉक्टर को बुला लाया।

डॉक्टर आकर पहले तो बहुत देर तक कुछ समझ ही न सके। अंत में उन्होंने पूछा, ‘‘क्या तकलीफ बढ़ गई है? एक बार दवा की मालिश करके क्यों न देखा जाए।’’
यह कहते हुए उन्होंने टेबल से शीशी उठाकर देखी, वह खाली थी।
मेरी पत्नी से पूछा, ‘‘क्या आपने गलती से यह दवा खाई है?’’
मेरी पत्नी ने गर्दन हिलाकर चुपचाप बताया, ‘‘हाँ।’’
डॉक्टर तुरंत अपने घर से पंप लाने के लिए गाड़ी में दौड़े। मैं अर्ध-मूर्च्छित-सा पत्नी के बिस्तर पर पड़ गया।

उस समय, जिस प्रकार माता पीड़ित शिशु को सांत्वना देती है उसी प्रकार उन्होंने मेरे सिर को अपने वक्षस्थल के पास खींचकर हाथों के स्पर्श द्वारा मुझे अपने मन की बात समझाने की चेष्टा की। केवल अपने उस करुण स्पर्श के द्वारा ही वे मुझसे बार-बार कहने लगीं, ‘‘दुखी मत होना, अच्छा ही हुआ। तुम सुखी रहोगे, यही सोचकर मैं सुख से मर रही हूँ।’’
जब डॉक्टर लौटे तो जीवन के साथ-साथ मेरी स्त्री यंत्रणाओं का भी अवसान हो गया था।

दक्षिणाचरण फिर से एक बार पानी पीकर बोले, ‘‘ओह! बड़ी गरमी है!’’ यह कहते हुए तेजी से बाहर निकलकर बरामदे में दो-चार बार टहलने के बाद फिर आ बैठे। अच्छी तरह स्पष्ट हो गया, वे कहना नहीं चाहते थे, किंतु मानो मैंने जादू से उनसे बात निकलवा ली हो। फिर आरंभ किया–
मनोरमा से विवाह करके घर लौट आया।

मनोरमा ने अपने पिता की सम्मति के अनुसार मुझसे विवाह किया। किंतु जब मैं उससे प्रेम की बात कहता, प्रेमालाप करके उसके हृदय पर अधिकार करने की चेष्टा करता तो वह हँसती नहीं, गंभीर बनी रहती। उसके मन में कहाँ किस जगह क्या खटका लग गया था, मैं कैसे समझता?
इन्हीं दिनों मेरी शराब पीने की लत बहुत बढ़ गई।

एक दिन शरद् के आरंभ में संध्या को मनोरमा के साथ अपने बरानगर के बाग में टहल रहा था। घोर अंधकार हो आया था। घोंसलों में पक्षियों के पंख फड़फड़ाने तक की आहट नहीं थी, केवल घूमने के रास्ते के दोनों किनारे घनी छाया से ढँके झाऊ के पेड़ हवा में सर-सर करते काँप रहे थे।
थकान का अनुभव करती हुई मनोरमा उसी मौलश्री वृक्ष के नीचे शुभ्र पत्थर की वेदी पर आकर अपने हाथों के ऊपर सिर रखकर लेट गई। मैं भी पास आकर बैठ गया।

वहाँ और भी घना अंधकार था; आकाश का जो भाग दिखाई दे रहा था, वह पूरी तरह तारों से भरा था। वृक्षों के तले के झींगुरों की ध्वनि मानो अनंत गगन के वक्ष से च्युत निःशब्दता पर ध्वनि की एक पतली किनारी बुन रही हो।

उस दिन भी शाम को मैंने कुछ शराब पी थी, मन खूब तरलावस्था में था। अंधकार जब आँखों को सहन हो गया तब वृक्षों की छाया के नीचे पांडु वर्ण वाली उस शिथिल-आँचल श्रांतकाय रमणी की अस्पष्ट मूर्ति ने मेरे मन में एक अनिवार्य आवेग का संचार कर दिया। मुझे लगा, वह मानो कोई छाया हो, मैं उसे मानो किसी भी तरह अपनी बाँहों में बाँध नहीं सकूँगा।

इसी समय अँधेरे झाऊ वृक्षों की चोटियों पर जैसे आग जल उठी हो; उसके पश्चात् कृष्ण पक्ष के क्षीण हरिद्रावर्ण चाँद ने धीरे-धीरे वृक्षों के ऊपर आकाश में आरोहण किया। सफेद पत्थर पर सफेद साड़ी पहने उसी थकी लेटी रमणी के मुख पर ज्योत्स्ना आकर पड़ी। मैं और न सह सका। पास आकर हाथों में उसका हाथ लेकर बोला, ‘‘मनोरमा, तुम मेरा विश्वास नहीं करतीं, पर मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। मैं तुमको कभी नहीं भूल सकता।’’

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